Friday, December 28, 2012

It is Dark....we are living in dark...

आओ हम अपनी इच्छाओं का जुलूस निकालते हैं. फटे हुए वस्त्रों से झांकते हुए तन - दो जून की रोटी के पा लेने के आश्वासन में शरीक ये 'उजालाकरने वाले शरीर, जलसे की  खुशियों में सम्मिलित रहते हुए भी निस्पृह  लोगकुतूहल से निहारते,  जश्न मनाते हुए लोगों का हुजूम,  बैंड की गला फाड़ धुनबाजों पर  इनाम की लालसा में बज रही यंत्रवत ताल. डीजे  की कान-फोड़ आवाज,   गरीबी को ढंकती हुई भड़कीली पोशाखों में, ढंका छुपा मन, बेमन ही सही,  कितनी सुरीली तानें छेड़ रहा हैकूल्हे मटकाते बेताल, बेतहाशा नाचते हुए परिजन, अपने करतब दिखाने की होड़ में लगे दोस्त,  अत्यंत प्रभावशाली दिखने का प्रयत्न? और पूरे समारोह को स्मृतियों   की जुगाली में परिवर्तित करने का जतन करते  फोटोग्राफर! नए नए स्वांग बनाए,  लिपीपुती,  केमरा कांशस,   जबरन मुस्कान   चिपकाए महिलाएं ! उस जुलूस में शरीक जर्जरित मन को झूठी   खुशियों से ढँक कर सम्मिलित जनसमूह है क्या फर्क! इन में मे मुझ और  ?
हम सब एक ही औपचारिकता में लिप्त  हैं. 

Monday, September 10, 2012

पचमढ़ी में कभी


घाटियों में भटके हुए शिशु बादल .....बादल झुण्डदल के पीछे  छूट जाएं  इसलिए त्वरित गति से अनुसरण करते हुए नन्हे बादलगण.
न जाने किस आनंद में बहता झरना  ..आतुर झरना, कल्लोल करती धाराएं   और दुबका हुआ रूप बदलता बहुरूपिया निर्झर ...चोरी कर भागता हुआ नटखट झरना.
सांवली धरा पर बादलों की छाया और नाले को फिसलपट्टी बना कर   रपटते हुए आसमान, पानी के कण कण को आसमान बना कर चमका रहा झरना.
जैसे सांवले शरीर पर चांदी के आभूषण पहने कोई सुन्दरी  इठला रही है

धरती का कोई टुकड़ा  मानो ऊपर उठ गया हो या पृथ्वी पर आकाश की कृपा उतर रही होकहीं दूर हरियाली, धूप में चमक कर निराली छटा पैदा कर रही है. मानो ईश्वर ने यही टुकड़ा  चुन कर जीवंत कर दिया हो! अभिव्यक्ति की सीमा तक  पहुँच गया कोई बादल!

धूप और बादल, उफनते हुए बादल आकारों से खेलते हुए बदलते हुए बादल - रूई की तरह धुनें हुए बादल --एथलीट बादल!

धुंध बन कर चारों ओर से स्मृतियों   की तरह घेरते हुए बादलों की छाया ... हरी हरी, समतल धरा पर बिछे हुए कालीन बादल
 आज मेरे कमरे कमरे का रोम रोम टपक रहा है किसी तरह अपनी सुरक्षा किये हुए बैठा हूँ. मन में घुप अन्धेरा छाया हुआ है.बाहर, बादल के नर्म नर्म ढेर को शहर की रोशनी छू रही है. बिजलियाँ  टूट पडी है, लहरें उठ रही हैं और चट्टानों से टकरा टकरा कर टूट रही हैं , बिखर रही हैं. बचा रहता है फेन ..झाग...छोटे छोटे सुख बुलबुलों की तरह फूट जाते हैं. फफोलों के फूटने से तो आराम मिलता है परन्तु इनके फूटने से दुःख का विस्तार ही होता है.
कमरे की छत दो दिन से टपक रही है इससे मुझे लगाव हो गया है, यह मुझे स्वधर्मी लगती है, रह रह कर बरसात होती है ..और कुछ अंश छत पर ही छूट जाता है अब छत आसमान हो गई है. मेरी तरह रीत रही है दिन रात!
पत्तों पर पानी के गिराने की आवाज आ रही है ... ऐसा लगता है   कि मैं इसे युगों   से सुनता आ  रहा हूँ. आदिम युग में भी पत्ते ऐसे ही टपकते होंगे!

Sunday, August 26, 2012

Un known journey!

बस में सवार …. ... कांच के सहारे, बाहर देखती हुई, बाहर जाने को उत्सुक ... एक फंसी हुई मक्खी की तरह पराधीन .. किंकर्तव्य विमूढ़.. हम रास्तों  की खोज में, बस के वेग के साथ अनजाने ही, बिना टिकट गंतव्य की ओर ले जाए जा  रहे  हैं.

Tuesday, August 7, 2012

rains and memories

The Rains

पहली पहली तेज बरसात थीतेज हवाएं फिर से जगा गई, आँगन की प्यासी जमीन सोंधी उसांसें लेने लगी देखते ही देखते आँगन में बूंदों के फूल भर गए. आकाश की छाती पर बादल मूंग दलते हुए कडकडा कर टूट पड़े और धरती पर धूल भरा मटमैला पानी बह निकला, छत के कवेलुओं से बरसता हुआ पानी लिपे पुते ओटलों पर कटाव पैदा करता हुआ नालियों की तरफ लपक कर बहने लगा. कवेलुओं से बहते हुए पानी को घंटो निहारा जा सकता है. गिरती हुई ये धारें ऐसे लगती है जैसे वर्षा  ने घर को इन डोरियों से बाँध कर वर्षाभिनंदन में वन्दनवार सजाए गए हों.
गिरती हुई हर बूँद  अपने आगमन की सूचना देती हुई छपाक से धाराओं में विलीन हो कर आगे बढ़ जाती है, अविरत गिरने से एक लय बन जाती है.....या,  सैनिक अपनी अपनी नावों में सवार हो कर डोलते हुए अपने आयुधों सहित निरंतर अग्रसर हो रहे हैं.
यह युद्ध अब एक ठहराव बन गया है. बचपन की गति इतनी तेज है कि बूँद कब धारा बन जाती है पता ही नहीं चलता केवल कटाव रह जाता है, अपना इतिहास छोड़ जाता है. 
मध्य रात्रि हो चुकी है .
पानी की बौछारें बंद हो रही हैं, मगर छत से पानी टपक रहा है जैसे पेड़ के पत्तों से पानी की बूँदें एक एक कर टपकती  हैं - उन्ही की आवाज में से छन छन कर  किसी लोक गीत का समवेत स्वर सुनाई दे रहा है. न जाने क्या होता है बरसात में कि मनुष्य को अपना बचपन, अपने  याद आते है. बरसातअतीत और स्मृति जुड़े जुड़े हैं,   पानी के धागों से बंधे हुए, एक स्थान पर रुके हुए ... केवल बादल और पानी चलते हैं.
निहायत सफाई से बरसात होने लगी हैपार्टी में सभ्य महिला के व्यवहार की तरह, खुली- खुली बंद-बंद॰ जैसे जैसे समय बीतता है वह अल्हडपन  गंभीरता धारण कर लेता है.

Fullness of Life

हे   लबालब!
सुन लबालब!
दे दे लबालब
भर दे लबालब
लब पर आया है अब
कर  दे लबालब
The feeling of fulfilment is the Godess Lakshmi! When we feel alone, split, cut off from others, She will also be cut off!
When we are with the nature, we feel togetherness with the whole, the Supreme consciousness.

Thursday, May 31, 2012

हवा

हवा चल रही है.क्रुद्ध हवा अनुतापित हवा. अपनी गर्मी से झुलसा रही है.. खेतों की मेड़ों पर से काँटों को उड़ा ले जाने वाली हवा. बवंडर पैदा करने वाली हवा. हर पगडंडी पर काँटें    बिछा रही है. कहीं कोई अपना सा  चला  जाए यहाँ से. सुबह से निकली इस हवा को अपने प्रियतम की तलाश है, यह ताप यूहीं नहीं है. ढेरों ढेर हवा, पुलकित हवा, सनसनाती शक्तिशाली हवा, अपने रूप बदलती हवा, परेशान हवा - अब  कब तक ढूंढें? भरमा गयी,  गरमा गयी. सवेरे तो पक्षियों ने भी उसी के स्वर में स्वर मिलाया था - परन्तु दुःख में कौन किसका साथ दे? शिथिल होती हवा को संध्या ने और भी निराश कर दिया. कुछ सूझता नहीं निस्तेज, निढाल हो कर चंचला अत्यंत भारी मन से अब दुबक गई. क्यों बरबस थपेड़े मारे? इसकी तलाश और प्रतीक्षा भी  बैचैनी से भरपूर थी. बैचैन प्रतीक्षारत हवा सभी को बैचैन कर रही है. अर्द्धरात्रि  में उनींदी हवा को, सोती हुई हवा को किसी ने आकर बरबस जकड लिया  और वह अठखेलियें करने लगी, अपनी मधुरता बिखेरती हवा सभी को सुला गयी.
मेरी   मुखरता को बंद रास्तों में बदल देने वाली मायाविनी गलियाँ आज गर्मी की दोपहर में, इस गंभीर एकांत में मुझे कहाँ ले चलने का आग्रह कर रही हैं? निश्चित आकारों एवं अनिश्चित रंगों की फ़ैली हुई गलियाँ! कहाँ जा रही हैं? हम इन्ही गलियों की बनाई हुई दिशाओं में भटक रहे  हैं.  हम  वहीं जाते हैं जहां ये गलिया ले जाती हैं॰ क्या गलियारों से ही गंतव्य मिलते हैं? क्या गलियाँ अभिशाप हैं?  वाह  ! भगवान अच्छे भले मैदानों पर तुमने गलियें बनवादीं

काश! कोई गली किसी छाँह में निकलती - अमराई में निकलती- पीपल के नीचे, बरगद की खोह में निकलती जहां मन का तोता कभी इस डाल पर कभी उस डाल पर बैठता था -  तालाब की पाल पर ही निकलती, ठंडी बयारों  के इर्द गिर्द निकलती ....लगता है  कि सब गलियाँ दूसरी गलियों में ही निकलती हैं और कहानियों में डूब जाती हैं. यह चंचल तोता तब से ही भटक रहा है. छाया में भी तो स्थिरता का अभाव है. अपने मन को समझा कर अपनी खोह में बैठा तोता कितना निरीह है?

बचपन की सुनी हुई कहानी आज भी कितनी अच्छी लगती  हैफर्क है उस अंतर का जो दुहराया नहीं जा सकता, सिर्फ कहानी दुहराई जा सकती है.
भीषण गर्मी के दिन. मुंज  तालाब  की  पाल - लहरियों की पाल से निरंतर बातचीत, कमल खिले हुए - घनी अमराई में गरमी अपना अस्तित्व ही  खो देने को आतुर. बचपन में गर्मी की कोई पहचान भी नहीं हुआ करती   थी. दृश्य तो आज भी वैसा ही है  परन्तु उसमे से एक रोमांटिक आवरण हट गया है.  बचपन की सरलता हट गई है  पहले जो कुछ होता था  यथावत स्वीकार किया जाता था 'जो जैसा है वह है', कोई संशय,  कोई सांसारिक  जिज्ञासा नहीं होती  थी.  अब मै अपना मतलब देकर ही उसे स्वीकार करता हूँ. मैं प्रकृति को अपने आइने से देखता हूँ. मेरा मूड,  रोना या हँसना प्रकृति से जोड़ देता  हूँ. मुझे पानी भरे तालाब नहीं दिखाई देते केवल सूखापन महसूस होता है. मेरी प्राथमिकताएँ ही बदल गई हैं यथावत नहीं मानने की और कारणों के पीछे दौड़ने की आदत  ने अब नए कारण तलाश लिए हैं. पहले फूल ईश्वर की कृपा से खिलते थे अब वे नगर पालिका की देन हैं. ईश्वर कितना बदल गया है?