आओ हम अपनी इच्छाओं का जुलूस निकालते हैं. फटे हुए वस्त्रों से झांकते हुए तन - दो जून की रोटी के पा लेने के आश्वासन में शरीक ये 'उजाला' करने वाले शरीर, जलसे की खुशियों में सम्मिलित रहते हुए भी निस्पृह लोग, कुतूहल से निहारते, जश्न मनाते हुए लोगों का हुजूम, बैंड की गला फाड़ धुन, बाजों पर इनाम की लालसा में बज रही यंत्रवत ताल. डीजे की कान-फोड़ आवाज, गरीबी को ढंकती हुई भड़कीली पोशाखों में, ढंका छुपा मन, बेमन ही सही, कितनी सुरीली तानें छेड़ रहा है, कूल्हे मटकाते बेताल, बेतहाशा नाचते हुए परिजन, अपने करतब दिखाने की होड़ में लगे दोस्त, अत्यंत प्रभावशाली दिखने का प्रयत्न? और पूरे समारोह को स्मृतियों की जुगाली में परिवर्तित करने का जतन करते फोटोग्राफर! नए नए स्वांग बनाए, लिपीपुती, केमरा कांशस, जबरन मुस्कान चिपकाए महिलाएं ! उस जुलूस में शरीक जर्जरित मन को झूठी खुशियों से ढँक कर सम्मिलित जनसमूह है क्या फर्क! इन में मे मुझ और ?
हम सब एक ही औपचारिकता में लिप्त हैं.