हवा चल रही है.क्रुद्ध हवा अनुतापित हवा. अपनी गर्मी से झुलसा रही है.. खेतों की मेड़ों पर से काँटों को उड़ा ले जाने वाली हवा. बवंडर पैदा करने वाली हवा. हर पगडंडी पर काँटें बिछा रही है. कहीं कोई अपना सा चला न जाए यहाँ से. सुबह से निकली इस हवा को अपने प्रियतम की तलाश है, यह ताप यूहीं नहीं है. ढेरों ढेर हवा, पुलकित हवा, सनसनाती शक्तिशाली हवा, अपने रूप बदलती हवा, परेशान हवा - अब कब तक ढूंढें? भरमा गयी, गरमा गयी. सवेरे तो पक्षियों ने भी उसी के स्वर में स्वर मिलाया था - परन्तु दुःख में कौन किसका साथ दे? शिथिल होती हवा को संध्या ने और भी निराश कर दिया. कुछ सूझता नहीं निस्तेज, निढाल हो कर चंचला अत्यंत भारी मन से अब दुबक गई. क्यों बरबस थपेड़े मारे? इसकी तलाश और प्रतीक्षा भी बैचैनी से भरपूर थी. बैचैन प्रतीक्षारत हवा सभी को बैचैन कर रही है. अर्द्धरात्रि में उनींदी हवा को, सोती हुई हवा को किसी ने आकर बरबस जकड लिया और वह अठखेलियें करने लगी, अपनी मधुरता बिखेरती हवा सभी को सुला गयी.
मेरी मुखरता को बंद रास्तों में बदल देने वाली मायाविनी गलियाँ आज गर्मी की दोपहर में, इस गंभीर एकांत में मुझे कहाँ ले चलने का आग्रह कर रही हैं? निश्चित आकारों एवं अनिश्चित रंगों की फ़ैली हुई गलियाँ! कहाँ जा रही हैं? हम इन्ही गलियों की बनाई हुई दिशाओं में भटक रहे हैं. हम वहीं जाते हैं जहां ये गलिया ले जाती हैं॰ क्या गलियारों से ही गंतव्य मिलते हैं? क्या गलियाँ अभिशाप हैं? वाह ! भगवान अच्छे भले मैदानों पर तुमने गलियें बनवादीं
काश! कोई गली किसी छाँह में निकलती - अमराई में निकलती- पीपल के नीचे, बरगद की खोह में निकलती जहां मन का तोता कभी इस डाल पर कभी उस डाल पर बैठता था - तालाब की पाल पर ही निकलती, ठंडी बयारों के इर्द गिर्द निकलती ....लगता है कि सब गलियाँ दूसरी गलियों में ही निकलती हैं और कहानियों में डूब जाती हैं. यह चंचल तोता तब से ही भटक रहा है. छाया में भी तो स्थिरता का अभाव है. अपने मन को समझा कर अपनी खोह में बैठा तोता कितना निरीह है?
बचपन की सुनी हुई कहानी आज भी कितनी अच्छी लगती है? फर्क है उस अंतर का जो दुहराया नहीं जा सकता, सिर्फ कहानी दुहराई जा सकती है.
भीषण गर्मी के दिन. मुंज तालाब की पाल - लहरियों की पाल से निरंतर बातचीत, कमल खिले हुए - घनी अमराई में गरमी अपना अस्तित्व ही खो देने को आतुर. बचपन में गर्मी की कोई पहचान भी नहीं हुआ करती थी. दृश्य तो आज भी वैसा ही है परन्तु उसमे से एक रोमांटिक आवरण हट गया है. बचपन की सरलता हट गई है पहले जो कुछ होता था यथावत स्वीकार किया जाता था 'जो जैसा है वह है', कोई संशय, कोई सांसारिक जिज्ञासा नहीं होती थी. अब मै अपना मतलब देकर ही उसे स्वीकार करता हूँ. मैं प्रकृति को अपने आइने से देखता हूँ. मेरा मूड, रोना या हँसना प्रकृति से जोड़ देता हूँ. मुझे पानी भरे तालाब नहीं दिखाई देते केवल सूखापन महसूस होता है. मेरी प्राथमिकताएँ ही बदल गई हैं यथावत नहीं मानने की और कारणों के पीछे दौड़ने की आदत ने अब नए कारण तलाश लिए हैं. पहले फूल ईश्वर की कृपा से खिलते थे अब वे नगर पालिका की देन हैं. ईश्वर कितना बदल गया है?
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