पहली पहली तेज बरसात थी, तेज हवाएं फिर से जगा गई, आँगन की प्यासी जमीन सोंधी उसांसें लेने लगी देखते ही देखते आँगन में बूंदों के फूल भर गए. आकाश की छाती पर बादल मूंग दलते हुए कडकडा कर टूट पड़े और धरती पर धूल भरा मटमैला पानी बह निकला, छत के कवेलुओं से बरसता हुआ पानी लिपे पुते ओटलों पर कटाव पैदा करता हुआ नालियों की तरफ लपक कर बहने लगा. कवेलुओं से बहते हुए पानी को घंटो निहारा जा सकता है. गिरती हुई ये धारें ऐसे लगती है जैसे वर्षा ने घर को इन डोरियों से बाँध कर वर्षाभिनंदन में वन्दनवार सजाए गए हों.
गिरती हुई हर बूँद अपने आगमन की सूचना देती हुई छपाक से धाराओं में विलीन हो कर आगे बढ़ जाती है, अविरत गिरने से एक लय बन जाती है.....या, सैनिक अपनी अपनी नावों में सवार हो कर डोलते हुए अपने आयुधों सहित निरंतर अग्रसर हो रहे हैं.
यह युद्ध अब एक ठहराव बन गया है. बचपन की गति इतनी तेज है कि बूँद कब धारा बन जाती है पता ही नहीं चलता केवल कटाव रह जाता है, अपना इतिहास छोड़ जाता है.
मध्य रात्रि हो चुकी है .
पानी की बौछारें बंद हो रही हैं, मगर छत से पानी टपक रहा है जैसे पेड़ के पत्तों से पानी की बूँदें एक एक कर टपकती हैं - उन्ही की आवाज में से छन छन कर किसी लोक गीत का समवेत स्वर सुनाई दे रहा है. न जाने क्या होता है बरसात में कि मनुष्य को अपना बचपन, अपने याद आते है. बरसात, अतीत और स्मृति जुड़े जुड़े हैं, पानी के धागों से बंधे हुए, एक स्थान पर रुके हुए ... केवल बादल और पानी चलते हैं.
निहायत सफाई से बरसात होने लगी है, पार्टी में सभ्य महिला के व्यवहार की तरह, खुली- खुली बंद-बंद॰ जैसे जैसे समय बीतता है वह अल्हडपन गंभीरता धारण कर लेता है.
No comments:
Post a Comment