मैं रोकता रहा वसंत को
बच निकला फरफराती हवाओं से
अनदेखी करता रहा
फुनगियों की दस्तक को
अनसुनी कर गया चहचहाहट
ढूँढता रहा बंद कमरे में
वासंती आनंद
और,
एक और,
निराला वसंत निकल गया
ठिठक गई कोपलें
विस्फारित आसमान
हवाओं को मिला
खुला मैदान
जी भर दौडने का आह्वान
धूल चाट रही थी पत्तियाँ
नाचने लगी, बेजान!
वसंत!
तुम आये बन कर
कंजूस के घर मेहमान !