Saturday, March 9, 2013

वसंत

मैं रोकता रहा वसंत को
बच निकला फरफराती हवाओं से
अनदेखी करता रहा
फुनगियों की दस्तक को
अनसुनी कर गया चहचहाहट
ढूँढता रहा बंद कमरे में
वासंती आनंद
और,
एक और,
निराला वसंत निकल गया

ठिठक गई कोपलें
विस्फारित आसमान
हवाओं को मिला
खुला मैदान
जी भर दौडने का  आह्वान
धूल चाट रही थी पत्तियाँ
नाचने लगी, बेजान!
वसंत!
तुम   आये बन कर
कंजूस के घर मेहमान !