Wednesday, September 26, 2012
Thursday, September 20, 2012
Monday, September 10, 2012
पचमढ़ी में कभी
घाटियों में भटके हुए शिशु बादल .....बादल झुण्ड, दल के पीछे न छूट जाएं इसलिए त्वरित गति से अनुसरण करते हुए नन्हे बादलगण.
न जाने किस आनंद में बहता झरना ..आतुर झरना, कल्लोल करती धाराएं और दुबका हुआ रूप बदलता बहुरूपिया निर्झर ...चोरी कर भागता हुआ नटखट झरना.
सांवली धरा पर बादलों की छाया और नाले को फिसलपट्टी बना कर रपटते हुए आसमान, पानी के कण कण को आसमान बना कर चमका रहा झरना.
जैसे सांवले शरीर पर चांदी के आभूषण पहने कोई सुन्दरी इठला रही है
धरती का कोई टुकड़ा मानो ऊपर उठ गया हो या पृथ्वी पर आकाश की कृपा उतर रही हो, कहीं दूर हरियाली, धूप में चमक कर निराली छटा पैदा कर रही है. मानो ईश्वर ने यही टुकड़ा चुन कर जीवंत कर दिया हो! अभिव्यक्ति की सीमा तक पहुँच गया कोई बादल!
धूप और बादल, उफनते हुए बादल आकारों से खेलते हुए बदलते हुए बादल - रूई की तरह धुनें हुए बादल --एथलीट बादल!
धुंध बन कर चारों ओर से स्मृतियों की तरह घेरते हुए बादलों की छाया ... हरी हरी, समतल धरा पर बिछे हुए कालीन बादल
आज मेरे कमरे कमरे का रोम रोम टपक रहा है किसी तरह अपनी सुरक्षा किये हुए बैठा हूँ. मन में घुप अन्धेरा छाया हुआ है.बाहर, बादल के नर्म नर्म ढेर को शहर की रोशनी छू रही है. बिजलियाँ टूट पडी है, लहरें उठ रही हैं और चट्टानों से टकरा टकरा कर टूट रही हैं , बिखर रही हैं. बचा रहता है फेन ..झाग...छोटे छोटे सुख बुलबुलों की तरह फूट जाते हैं. फफोलों के फूटने से तो आराम मिलता है परन्तु इनके फूटने से दुःख का विस्तार ही होता है.
कमरे की छत दो दिन से टपक रही है इससे मुझे लगाव हो गया है, यह मुझे स्वधर्मी लगती है, रह रह कर बरसात होती है ..और कुछ अंश छत पर ही छूट जाता है अब छत आसमान हो गई है. मेरी तरह रीत रही है दिन रात!
पत्तों पर पानी के गिराने की आवाज आ रही है ... ऐसा लगता है कि मैं इसे युगों से सुनता आ रहा हूँ. आदिम युग में भी पत्ते ऐसे ही टपकते होंगे!
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